आम आदमी
Tuesday, March 1, 2011
चतुराई से भरा आम बजट
प्रमोद भार्गव
सस्ती लोकप्रियता से दूर यह इतना चतुराई से भरा आम बजट है कि इसमें उन सभी मुद्दों के मुंह मिलने की कोशिश की गई है, जिनके बूते कांग्रेस की प्रतिष्ठा तो दाव पर लगी ही थी, संसद से सड़क तक उसकी छीछालेदर भी हो रही थी। इसलिए इसमें जहां आयकर की सीमा बढ़ाकर बंधी आय से जुड़े लोगों को लाभ दिया गया, वहीं गरीबी रेखा के दायरे में जीवन यापन करने वालों को कैरोसिन, घरेलु गैस व किसानों को खाद पर सीधी छूट देकर उन्हें तो लुभाया ही गया, इस सप्लाई लाइन के जरिये भ्रष्टाचार से अर्जित कालेधन के फैलते सुरसामुख पर भी लगाम कसी गई है। कृषि को लाभ का धंधा बनाने के दृष्टिगत एक साथ एक तीर से दो निशाने साधे गए हैं। खाद्य प्रसंस्करण और शीत भण्डारों से संबंधित उपकरणों पर एक्साइज ड्यूटी घटाकर व कुछ सब्सिडी देकर जहां उद्योग जगत को सीधा मुनाफा पहंुचाया है, वहीं फल व सब्जियों के भण्डारण से किसानों के लाभान्वित होने की उम्मीद की जा सकती है। आंगनवाडी कार्यकर्ताओं की तनख्वाह दोगुनी कर, करीब 20 लाख महिलाओं को लाभ दिया गया, वहीं वातानुकूलित अस्पतालों को मंहगा करने के प्रस्ताव ने रोगियों को खतरे में डाल दिया। इन लुभावने प्रस्तावों के बावजूद इस बजट में न तो बेरोजगारी दूर करने के उपाय दिखे और न ही उन महिला और बच्चों का खयाल रखा, जिनकी दिहाड़ी मजदूर के रूप में असंगठित क्षेत्रों में 96 फीसद भागीदारी है। मंहगाई से मुक्ति के उपायों की भी सर्वथा अनदेखी की गई है। देश की आर्थिक प्रगति को रोजगारोन्मुखी बनाए जाने की जरूरत थी। ऐसा होता तो यह बजट समावेशी विकास की दिशा तय करता।
फौरी तौर से इस बजट में आम नागरिक से जुड़ी प्रशासनिक जटिलताओं को सरल बनाने की कोशिशें दिखाई दे रही हैं। यह स्थिति बहाल होती है तो यह बजट असमानता में कमी लाने की दृष्टि से एक टर्निंग र्पोइंट भी साबित हो सकता है। गरीबों के कैरोसिन, एलपीजी और खाद पर मिलने वाली छूट की राशि अब उत्पादक कंपनियों की बजाय सीधे उपभोक्ता को मिलेगी, वह भी सीधे नकद राशि के रूप में। महाराष्ट्र में ईमानदार अधिकारी यशवंत सोनवणे की हत्या के बाद ऐसी खबरों को बल मिला था कि गरीबों को जो छूट आधारित कैरोसिन उपलब्ध कराया जाता है, उसका 40 फीसदी हिस्सा तेल माफिया मिलावटखोरों को बेच देता है। पिछले साल के आम बजट में तेल और खाद पर मिलने वाली इस सब्सिडी की राशि 53000 करोड़ रूपये थी। जो मौजूदा वित्तीय साल में बढ़ाकर 245 प्रतिशत कर दी गई थी। हालांकि कुछ गुलाबी हितों के पैरोकार अर्थशास्त्री चाहते थे कि इस छूट को पूरी तरह खत्म कर दिया जाए। लेकिन कांग्रेस को ऐसा करना इसलिए भी संभव नहीं था क्योंकि पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडू, पांडिचेरी और केरल में जल्द चुनाव संभावित हैं।
छूट की नकद राशि सीधे उपभोक्ता के खाते में जाए इस दृष्टि से भी बजट में कारगर उपायों का प्रावधान है। ई-प्रशासन को विस्तारित कर जहां पारदर्शी बनाए जाने पर जोर दिया गया है वहीं बहुउपयोगी पहचान पत्र के निर्माण में तीव्रता लाने का भी भरोसा जताया गया है। नंदन नीलकेणी अब दस लाख लोगों को प्रतिदिन क्रमांकित (नंबरिंग) कर उन्हें एक नई पहचान देकर ई-प्रशासन और ई-बैंकिग के लिए सुविधाजनक बनाकर पारदर्शिता लाएंगे। सामाजिक क्षेत्र के वंचित लोगों की मजदूरी से अर्जित ये निधियां सुरक्षित होती हैं तो महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना में काम करने वाले गरीबों के रोटी के हक को भी मजबूती मिलेगी। क्योंकि जिस तरह से पहचान-पत्र बनाने का दावा किया गया है, उसके चलते एक साल में 36 करोड़ पहचान पत्र लोगों को वितरित कर दिए जाएंगे और आगामी तीन सालों में यह कार्य पूरा हो जाएगा।
किसानों को कर्ज में छूट तो दी गई है लेकिन वे कर्ज से हमेशा के लिए मुक्त हो जाएं ऐसे ठोस उपाय नहीं सुझाये गए हैं। अब किसानों को 7 फीसदी ब्याज की दर से कर्ज मिलेगा, साथ ही जो किसान समय पर ऋण चुकाएंगे उन्हें एक प्रतिशत ब्याज की राहत अतिरिक्त मिलेगी, लेकिन यह राहत छलावा भर है क्योंकि प्रकृति की मार के साथ नकली खाद व बीजों की मार भी किसानों को झेलनी पड़ रही है। इसलिए समय पर कर्ज चुकाने में किसान आने वाले कुछ सालों में सक्षम हो जाएंगे, ऐसा लगता नहीं ? किसान या देश का वंचित तबका खाती-पीती स्थिति में आ जाएगा ऐसा भी इस बजट में लगता नहीं है। क्योंकि लोक कल्याणकारी योजनाओं अथवा विकासवादी अधोसरंचना के लिए कुल 10,000 करोड़ रूपये की वृद्धि की गई है। चूंकि बढ़ती मंहगाई पर किसी भी दशा में अंकुश लगता दिखाई नहीं दे रहा है इसलिए ऐसे हालात में यह बजट-वृद्धि मूल रूप मंे सिर्फ अर्थ-समायोजन का काम करेगी। मंहगाई पर काबू पाना फिलहाल इसलिए भी संभव नहीं है क्योंकि तेल उत्पादक अरब और अफ्रीकी देशों में राजनीतिक बदलाव का दौर चल रहा है। इस कारण इन देशों में अनिश्चिता की स्थिति बनी हुई है और प्रशासनिक व्यवस्था ठप है। कृषि बजट को 20 फीसदी बढ़ाने का दावा तो किया गया है, लेकिन यह विपुल धन राशि कहां से उत्सर्जित की जाएगी इसका कोई खुलासा नहीं है। हां कर्ज की ब्याज दरें घटाकर किसानों में कर्ज का प्रवाह जरूर बढ़ाने की कोशिश की गई है, जो किसानों को बदहाल बनाने का ही काम करेगी
आयकर सीमा में छूट देकर वित्त मंत्री ने वेतनभोगियों का खयाल रखा है। ऐसा इसलिए भी जरूरी था क्योंकि केंद्र की यूपीए सरकार को चुनावी जंग में जाना है। हालांकि आय सीमा एक लाख 60 हजार से बढ़ाकर महज एक लाख 80 हजार की गई है। इस उपाय से इस आय में करीब 2020 रूपये का लाभ होगा। लेकिन वरिष्ठ नागरिकों को लाभ देने के बहाने भी सेवानिवृत्त कर्मचारियों को लाभ दिया गया है। इस नजरिये से एक तो लाभ की उम्र 65 से 60 कर दी गई, वहीं दूसरी तरफ जो 80 साल से ऊपर की उम्र के लोग हैं वे 5 लाख की आमदनी होने पर भी कर सीमा में नहीं आएंगे। जाहिर है इस नीति-निर्धारण से जो उच्च पदों की सेवाओं से मुक्त हुए हैं, उन्हें ही ज्यादा लाभ मिलने वाला है। छोटे, मझोले व खुदरा व्यापारी और किसान तो इस उम्र तक बमुश्किल ही पहुंचते हैं।
शेयर बाजार में बजट आने के साथ ही जो उछाल आया है और उद्योग जगत की जिस तरह से प्रसन्न मुद्रा में प्रतिक्रिया मिल रही है उससे जाहिर है बजट कार्पोरेट जगत के लिए हितकारी है। वातानुकूलित उपकरणों मंे छूट की दृष्टि से जो 300 करोड़ का प्रावधान है, उससे उद्योग जगत की माली हालत में इजाफा होगा। एक्साइज ड्यूटी और कार्पोरेट टेक्स में भी कोई वृद्धि नहीं की गई। बैंकों के कर्ज प्रावधान भी 3.75 लाख हजार करोड़ से बढ़ाकर 4.75 लाख हजार करोड़ कर दिए गए हैं। आर्थिक और कृषि संबंधी सुधारों के बहाने यह राशि उद्योगपतियों को मिलने जा रही है। कंेंद्र सरकार कि लिए ये प्रावधान इसलिए भी जरूरी थे क्योंकि वह भारत की उभरती हुई महाशक्ति की आकांक्षा की बुनियाद को मजबूती देना चाहती है।
प्रणव मुखर्जी ने शिक्षा सुधारों को भी महत्व दिया है। सर्वशिक्षा अभियान का बजट 24 फीसदी बढ़ाया गया है और ‘शिक्षा के अधिकार’ को लागू करने के लिए 40 फसदी धन राशि मुहैया कराई गई है। लेकिन प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में विसंगति यह है कि अब दूरदराजों के ग्रामों तक शिक्षा का बुनियादी ढांचा तो कमोबेश खड़ा हो गया, परंतु शिक्षक की पहंुच पाठशाला में सुनिश्चित हो और शिक्षा में गुणवत्ता आए इस लिहाज से सरकार की कोई इच्छाशक्ति देखने में नहीं आ रही है ?
इस बजट को ठीक-ठाक तो माना जा सकता है लेकिन यह न संतुलित बजट है और न ही समावेशी। यह कारगर बजट तब होता जब राजस्व को बढ़ाकर और खर्चाें को कम कर राजकोषीय घाटे को सकल घरेलु उत्पाद के 4.8 फीसद स्तर पर रखने के लक्ष्य को हासिल करता।
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ई-पता चतंउवकण्इींतहंअं15/हउंपस
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी (म.प्र.) पिन-473-551
लेखक वरिष्ठ कथाकार एवं पत्रकार हैं।
चतुराई से भरा आम बजट
प्रमोद भार्Ûव
सस्ती लोकप्रि;ता से दूर ;ह इतना चतुराई से भरा आम बजट है कि इसमें उन सभी मुद्दों के मुंह मिलने की कोशिश की Ûई है, जिनके बूते कांÛ्रेस की प्रतिष्ठा तो दाव पर लÛी ही थी, संसद से सड$क तक उसकी छीछालेदर भी हो रही थी। इसलि, इसमें जहां आ;कर की सीमा बढ$ाकर बं/ाी आ; से जुड$े लोÛों को लाभ दि;ा Û;ा, वहीं Ûरीबी रेखा के दा;रे में जीवन ;ापन करने वालों को कैरोसिन, ?ारेलु Ûैस व किसानों को खाद पर सी/ाी छूट देकर उन्हें तो लुभा;ा ही Û;ा, इस सप्लाई लाइन के जरि;े भ्रष्टाचार से अर्जित काले/ान के फैलते सुरसामुख पर भी लÛाम कसी Ûई है। कृषि को लाभ का /ां/ाा बनाने के दृष्टिÛत ,क साथ ,क तीर से दो निशाने सा/ो Û, हैं। खाद्य प्रसंस्कर.ा और शीत भ.डारों से संबं/िात उपकर.ाों पर ,क्साइज ड्;ूटी ?ाटाकर व कुछ सब्सिडी देकर जहां उद्योÛ जÛत को सी/ाा मुनाफा पहंुचा;ा है, वहीं फल व सब्जि;ों के भ.डार.ा से किसानों के लाभान्वित होने की उम्मीद की जा सकती है। आंÛनवाडी कार्;कर्ताओं की तनख्वाह दोÛुनी कर, करीब 20 लाख महिलाओं को लाभ दि;ा Û;ा, वहीं वातानुकूलित अस्पतालों को मंहÛा करने के प्रस्ताव ने रोÛि;ों को खतरे में डाल दि;ा। इन लुभावने प्रस्तावों के बावजूद इस बजट में न तो बेरोजÛारी दूर करने के उपा; दिखे और न ही उन महिला और बच्चों का ख;ाल रखा, जिनकी दिहाड$ी मजदूर के रूप में असंÛठित {ो=ों में 96 फीसद भाÛीदारी है। मंहÛाई से मुक्ति के उपा;ों की भी सर्वथा अनदेखी की Ûई है। देश की आर्थिक प्रÛति को रोजÛारोन्मुखी बना, जाने की जरूरत थी। ,ेसा होता तो ;ह बजट समावेशी विकास की दिशा त; करता।
फौरी तौर से इस बजट में आम नाÛरिक से जुड$ी प्रशासनिक जटिलताओं को सरल बनाने की कोशिशें दिखाई दे रही हैं। ;ह स्थिति बहाल होती है तो ;ह बजट असमानता में कमी लाने की दृष्टि से ,क टर्निंÛ र्पोइंट भी साबित हो सकता है। Ûरीबों के कैरोसिन, ,लपीजी और खाद पर मिलने वाली छूट की राशि अब उत्पादक कंपनि;ों की बजा; सी/ो उपभोक्ता को मिलेÛी, वह भी सी/ो नकद राशि के रूप में। महाराष्ट्र में ईमानदार अ/िाकारी ;शवंत सोनव.ो की हत्;ा के बाद ,ेसी खबरों को बल मिला था कि Ûरीबों को जो छूट आ/ाारित कैरोसिन उपलब्/ा करा;ा जाता है, उसका 40 फीसदी हिस्सा तेल माफि;ा मिलावटखोरों को बेच देता है। पिछले साल के आम बजट में तेल और खाद पर मिलने वाली इस सब्सिडी की राशि 53000 करोड$ रूप;े थी। जो मौजूदा वित्ती; साल में बढ$ाकर 245 प्रतिशत कर दी Ûई थी। हालांकि कुछ Ûुलाबी हितों के पैरोकार अर्थशास्=ी चाहते थे कि इस छूट को पूरी तरह खत्म कर दि;ा जा,। लेकिन कांÛ्रेस को ,ेसा करना इसलि, भी संभव नहीं था क्;ोंकि पश्चिम बंÛाल, असम, तमिलनाडू, पांडिचेरी और केरल में जल्द चुनाव संभावित हैं।
छूट की नकद राशि सी/ो उपभोक्ता के खाते में जा, इस दृष्टि से भी बजट में कारÛर उपा;ों का प्राव/ाान है। ई-प्रशासन को विस्तारित कर जहां पारदर्शी बना, जाने पर जोर दि;ा Û;ा है वहीं बहुउप;ोÛी पहचान प= के निर्मा.ा में तीव्रता लाने का भी भरोसा जता;ा Û;ा है। नंदन नीलके.ाी अब दस लाख लोÛों को प्रतिदिन क्रमांकित (नंबरिंÛ) कर उन्हें ,क नई पहचान देकर ई-प्रशासन और ई-बैंकिÛ के लि, सुवि/ााजनक बनाकर पारदर्शिता ला,ंÛे। सामाजिक {ो= के वंचित लोÛों की मजदूरी से अर्जित ;े नि/िा;ां सुर{िात होती हैं तो महात्मा Ûां/ाी रोजÛार Ûारंटी ;ोजना में काम करने वाले Ûरीबों के रोटी के हक को भी मजबूती मिलेÛी। क्;ोंकि जिस तरह से पहचान-प= बनाने का दावा कि;ा Û;ा है, उसके चलते ,क साल में 36 करोड$ पहचान प= लोÛों को वितरित कर दि, जा,ंÛे और आÛामी तीन सालों में ;ह कार्; पूरा हो जा,Ûा।
किसानों को कर्ज में छूट तो दी Ûई है लेकिन वे कर्ज से हमेशा के लि, मुक्त हो जा,ं ,ेसे ठोस उपा; नहीं सुझा;े Û, हैं। अब किसानों को 7 फीसदी ब्;ाज की दर से कर्ज मिलेÛा, साथ ही जो किसान सम; पर -.ा चुका,ंÛे उन्हें ,क प्रतिशत ब्;ाज की राहत अतिरिक्त मिलेÛी, लेकिन ;ह राहत छलावा भर है क्;ोंकि प्रकृति की मार के साथ नकली खाद व बीजों की मार भी किसानों को झेलनी पड$ रही है। इसलि, सम; पर कर्ज चुकाने में किसान आने वाले कुछ सालों में स{ाम हो जा,ंÛे, ,ेसा लÛता नहीं ? किसान ;ा देश का वंचित तबका खाती-पीती स्थिति में आ जा,Ûा ,ेसा भी इस बजट में लÛता नहीं है। क्;ोंकि लोक कल्;ा.ाकारी ;ोजनाओं अथवा विकासवादी अ/ाोसरंचना के लि, कुल 10,000 करोड$ रूप;े की वृ)ि की Ûई है। चूंकि बढ$ती मंहÛाई पर किसी भी दशा में अंकुश लÛता दिखाई नहीं दे रहा है इसलि, ,ेसे हालात में ;ह बजट-वृ)ि मूल रूप मंे सिर्फ अर्थ-समा;ोजन का काम करेÛी। मंहÛाई पर काबू पाना फिलहाल इसलि, भी संभव नहीं है क्;ोंकि तेल उत्पादक अरब और अफ्रीकी देशों में राजनीतिक बदलाव का दौर चल रहा है। इस कार.ा इन देशों में अनिश्चिता की स्थिति बनी हुई है और प्रशासनिक व्;वस्था ठप है। कृषि बजट को 20 फीसदी बढ$ाने का दावा तो कि;ा Û;ा है, लेकिन ;ह विपुल /ान राशि कहां से उत्सर्जित की जा,Ûी इसका कोई खुलासा नहीं है। हां कर्ज की ब्;ाज दरें ?ाटाकर किसानों में कर्ज का प्रवाह जरूर बढ$ाने की कोशिश की Ûई है, जो किसानों को बदहाल बनाने का ही काम करेÛी
आ;कर सीमा में छूट देकर वित्त मं=ी ने वेतनभोÛि;ों का ख;ाल रखा है। ,ेसा इसलि, भी जरूरी था क्;ोंकि केंद्र की ;ूपी, सरकार को चुनावी जंÛ में जाना है। हालांकि आ; सीमा ,क लाख 60 हजार से बढ$ाकर महज ,क लाख 80 हजार की Ûई है। इस उपा; से इस आ; में करीब 2020 रूप;े का लाभ होÛा। लेकिन वरिष्ठ नाÛरिकों को लाभ देने के बहाने भी सेवानिवृत्त कर्मचारि;ों को लाभ दि;ा Û;ा है। इस नजरि;े से ,क तो लाभ की उम्र 65 से 60 कर दी Ûई, वहीं दूसरी तरफ जो 80 साल से ऊपर की उम्र के लोÛ हैं वे 5 लाख की आमदनी होने पर भी कर सीमा में नहीं आ,ंÛे। जाहिर है इस नीति-निर्/ाार.ा से जो उच्च पदों की सेवाओं से मुक्त हु, हैं, उन्हें ही ज्;ादा लाभ मिलने वाला है। छोटे, मझोले व खुदरा व्;ापारी और किसान तो इस उम्र तक बमुश्किल ही पहुंचते हैं।
शे;र बाजार में बजट आने के साथ ही जो उछाल आ;ा है और उद्योÛ जÛत की जिस तरह से प्रसन्न मुद्रा में प्रतिक्रि;ा मिल रही है उससे जाहिर है बजट कार्पोरेट जÛत के लि, हितकारी है। वातानुकूलित उपकर.ाों मंे छूट की दृष्टि से जो 300 करोड$ का प्राव/ाान है, उससे उद्योÛ जÛत की माली हालत में इजाफा होÛा। ,क्साइज ड्;ूटी और कार्पोरेट टेक्स में भी कोई वृ)ि नहीं की Ûई। बैंकों के कर्ज प्राव/ाान भी 3-75 लाख हजार करोड$ से बढ$ाकर 4-75 लाख हजार करोड$ कर दि, Û, हैं। आर्थिक और कृषि संबं/ाी सु/ाारों के बहाने ;ह राशि उद्योÛपति;ों को मिलने जा रही है। कंेंद्र सरकार कि लि, ;े प्राव/ाान इसलि, भी जरूरी थे क्;ोंकि वह भारत की उभरती हुई महाशक्ति की आकां{ाा की बुनि;ाद को मजबूती देना चाहती है।
प्र.ाव मुखर्जी ने शि{ाा सु/ाारों को भी महत्व दि;ा है। सर्वशि{ाा अभि;ान का बजट 24 फीसदी बढ$ा;ा Û;ा है और ‘शि{ाा के अ/िाकार’ को लाÛू करने के लि, 40 फसदी /ान राशि मुहै;ा कराई Ûई है। लेकिन प्राथमिक और मा/;मिक शि{ाा में विसंÛति ;ह है कि अब दूरदराजों के Û्रामों तक शि{ाा का बुनि;ादी ढांचा तो कमोबेश खड$ा हो Û;ा, परंतु शि{ाक की पहंुच पाठशाला में सुनिश्चित हो और शि{ाा में Ûु.ावत्ता आ, इस लिहाज से सरकार की कोई इच्छाशक्ति देखने में नहीं आ रही है ?
इस बजट को ठीक-ठाक तो माना जा सकता है लेकिन ;ह न संतुलित बजट है और न ही समावेशी। ;ह कारÛर बजट तब होता जब राजस्व को बढ$ाकर और खर्चाें को कम कर राजकोषी; ?ााटे को सकल ?ारेलु उत्पाद के 4-8 फीसद स्तर पर रखने के ल{; को हासिल करता।
Friday, February 25, 2011
म.प्र. में गिनीपिग की तर्ज पर चल रहा है जानलेवा ड्रग ट्रायल
जिस्म बने प्रयोगशाला
प्रमोद भार्गव
यह कितनी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि मानवीयता और नैतिकता के सभी तकाजों को ताक पर रखकर म.प्र. में दवा परीक्षण के लिए मरीजों के जिस्म को कच्चा माल मानते हुए प्रयोगशाला बनाया जा रहा है। ये दवा परीक्षण नाजायज तौर से भोपाल के भोपाल मेमोरियल अस्पताल और इन्दौर के सरकारी अस्पताल में किये जा रहे हैं। भोपाल गैस पीड़ितों के लिए काम करने वाले संगठन भोपाल ग्रुप फॉर इंफार्मेशन एण्ड एक्शन ने दावा किया है कि अब तक गैस पीड़ितो ंपर किये गये दवा परी़क्षण में करीब 10 लोग जान गवां चुके हैं। ये परीक्षण बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के लिए 2006 से जारी हैं। इसी तरह इंदौर में 869 लाचार व गरीब बाल-गोपालों की देह पर निर्माणाधीन दवाओं का चिकित्सकीय परीक्षण कर उनकी सेहत के साथ खिलवाड़ किया ग्या। मध्यप्रदेश के इन्दौर में ये परीक्षण एक सरकारी अस्पताल में चोरी-छिपे किए गए। इस नाजायज कारोबार को अंजाम अस्पताल के करीब आधा दर्जन चिकित्सा विशेषज्ञों ने दो करोड़ बतौर रिश्वत लेकर किये। हैरानी यहां यह भी है कि ये परीक्षण सर्वाइकल और गुप्तांग कैंसर जैसे रोगों के लिए किए गए, जिनके रोगी भारत में ढूंढने पर भी बमुश्किल मिलते हैं। इस क्लीनिकल ड्रग एवं वेक्सीन ट्रायल का खुलासा पहले तो एक स्वयंसेवी संस्था ने किया बाद में इसे विधायक पारस सखलेचा और उमंग सिंघार द्वारा पूछ्रे गए एक सवाल के जबाव में प्रदेश सरकार के स्वास्थ्य राज्य मंत्री महेन्द्र हार्डिया ने विधानसभा पटल पर मंजूर किया कि 869 बच्चों पर दवा का परीक्षण बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों ने इंदौर के महाराजा यशवंतराज चिकित्सालय में किया।
ये परीक्षण इन्दौर समेत प्रदेश के कुछ अन्य सरकारी अस्पतालों में बगैर अनुमति के किए गए। जिन 869 बच्चों पर ये परीक्षण किए गए उनमें से 866 पर टीका और तीन बच्चों पर दवा का परीक्षण किया गया। ये सभी परीक्षण विश्व स्वास्थ्य संगठन की बजाय बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों ने कराए। ये आंकड़े केवल दो साल के हैं। जबकि प्रदेश में छह साल से आदिवासियों समेत गरीब बच्चों पर दवाओं व टीकों के परीक्षण जारी हैं। परीक्षण के दौरान कुछ बच्चों की मौतें भी हुई हैं। लेकिन इन बच्चों का किसी स्वतंत्र पेनल से शव विच्छेदन नहीं कराया गया। इसलिए यह साफ नहीं हो सका कि मौतें परीक्षण के लिए इस्तेमाल दवाओं के दुष्प्रभाव से ही हुईं। दरअसल ऐसी स्थिति में खुद चिकित्सक नहीं समझ पाते कि प्रयोग में लाई जा रही दवा से मरीज को बचाने के लिए कौनसी दवा दी जाए। इसलिए इन प्रयोगों के दौरान रोगी की स्मरणशक्ति गुम हो जाना, आंखों की रोशनी कम हो जाना और शरीर की प्रतिरोधात्मक क्षमता घट जाना आम बात है।
दवाओं का ऐसा ही प्रयोग भोपाल गैस दुर्घटना के पीड़ितों पर भी भोपाल मेमोरियल अस्पताल में किया गया है। भोपाल ग्रुप फॉर इंफार्मेशन एण्ड एक्शन समाज सेवी संगठन में सतीनाथ षडंगी और रचना ढिंगरा ने दावा किया है कि केंद्रीय दवा नियंत्रण संगठन नई दिल्ली से प्राप्त जानकारी के अनुसार गैस पीड़ितो ंपर सात दवाओं की जांचों में से मात्र एक पर ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया द्वारा निगरानी रखी गई। तीन गैस पीड़ितों की मृत्यु उनके ऊपर टेलिवैनसीन दवा की जांच की वजह से हुई, जबकि पांच फॉनडापरिनक्स और दो टाइगेसाइकलीन दवा के परीक्षण के वजह से मारे गए। इन परीक्षणों के लिए दवा कंपनियों से कुछ अस्पताल के ही चिकित्सकों ने एक करोड़ से अधिक की धन राशि वसूली।
इंदौर के अस्पताल में वर्ष 2010 में ही 44 बालक-बालिकाओं पर सर्वाइकल कैंसर और गुप्तांग कैंसर के लिए वी-503 टीका का परीक्षण किया गया। गुप्तरूप से किए जा रहे इन परीक्षणों का खुलासा एक स्वयंसेवी संस्था के साथ मिलकर इसी अस्पताल के चिकित्सक डॉ. आनंद राय ने किया तो एक जांच समिति गठित कर मामले को दबाने की कोशिश की गई। इस समिति ने लाचारी जताते हुए अपनी रिपोर्ट में कहा कि दुनिया में ऐसा कोई कानून नहीं है कि जिसके जरिए दवाओं के ऐसे परीक्षणों पर रोक लगाई जा सके। इस आधार पर न तो समिति के सुझावों को अमल में लाया जा सका और न ही परीक्षण के लिए दोषी आधा दर्जन चिकित्सकों के विरूद्ध कोई कार्रवाही की जा सकी। यहां इस सवाल को गौण कर दिया गया कि चिकित्सकों ने दवा कंपनियों से मोटी रकम तो निजी लाभ के लिए ली, लेकिन संसाधन सरकारी अस्पताल के उपयोग में लिए ? क्या अस्पताल के साथ यह धोखाधड़ी नहीं हैं ? प्रयोग में लाए गए बच्चों की जब मौंते हुईं तो अस्पताल की बदनामी तो हुई ही, आम आदमी का विश्वास भी उठा ? इसकी भरपाई कौन करेगा ?
जिन जानलेवा बीमारियों पर इंदौर में दवाओं का परीक्षण किया गया, वे बीमारियां मध्यप्रदेश में तो क्या भारत में ही कम होती हैं। चरित्रहीनता के चलते ये बीमारियां योरोपीय देशों के गोरों में ज्यादा होती हैं। वहां का जलवायु भी इन बीमारियों की मानव शरीर में उत्पत्ति का एक कारण माना जाता है। इसलिए ये प्रयोग अनैतिकता की ऐसी विडंबना हैं कि हम विदेशियों के लिए अपने लोगों की जान लेने में कोई रहम नहीं बरतने की गुंजाईश छोड़ते हैं। यदि ये परीक्षण टीबी, चिकुनगुनिया, कुपोषण, फेल्सीफेरम और मलेरिया जैसे रोगों पर उपचार की कारगर दवा इजाद करने के लिए किए जाते तो किसी हद तक गुप्त रूप से किए जाने के बावजूद इनके औचित्य को जायज ठहराया जा सकता था। क्योंकि इन्हीं बीमारियों की गिरफ्त में सबसे ज्यादा भारतीय आते हैं और समय पर इलाज नहीं होने के कारण मरते भी बड़ी संख्या में हैं।
वैसे ऐसा नहीं है कि इस बाबत कोई नीयम-कायदे वजूद में ही न हों। यदि इजाजत लेकर दवा परीक्षण किए जाते हैं तो नामित विशेषज्ञ चिकित्सकों की समिति की संस्तुति और स्वास्थ्य विभाग की अनुमति जरूरी होती है। अस्पताल के मुखिया और जिन रोगियों पर निर्माणाधीन दवा का प्रयोग किया जा रहा है, पूरी पारदर्शिता बरतते हुए उन्हें भी विश्वास में लिया जाता है। एक सहमति-पत्र पर रोगी के अविभावक के हस्ताक्षर कराकर अनुमति लेना भी ड्रग ट्रायल की अनिवार्य शर्त है। ये परीक्षण सिलसिलेवार तीन अथवा चार चरणों में चलते हैं और प्रयोगशील अवस्था होने के कारण मरीज के शरीर पर इसके दुष्प्रभाव का संदेह बना ही रहता है। कई मर्तबा दवा जानेलेवा भी साबित होती है। इसी कारण दवाओं का पहले प्रयोग गिनीपिग, खरगोश और चूहों पर किया जाता है। लेकिन इस मामले में तो सीधे-सीधे इंसानों को ही गिनीपिग और चूहों की तरह इस्तेमाल किया गया। लिहाजा प्रयोग की प्रक्रिया के दौरान मरीजों को नर्सों की देखरेख में रहना चाहिए था, जबकि भोपाल-इंदौर में ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि नर्सों तक बात पहंुचने पर जल्दी गोपनीयता भंग होने की आशंका प्रयोग में लगे चिकित्सा दल को थी।
अपने बाल-बच्चों को जान-बूझकर प्रयोग के खतरों से गुजारना कोई भी माता-पिता नहीं चाहते। इसलिए वे अपनी संतान पर आसानी से किसी भी प्रकार के परीक्षण के लिए रजामंद भी नहीं होते। नतीजतन दवा निर्माता कंपनियां दवा परीक्षण के सिलसिले में अकसर मोटी रकम देकर बिचौलियों का हाथ थामती हैं। ये बिचौलिए अस्पतालों और चिकित्सा महाविद्यालयों के चिकित्सकों को पटाकर गोपनीय तरकीबों से अस्पतालों में सामान्य तौर पर इलाज के लिए आए मरीजों को शिकार के रूप में इस्तेमाल कर परीक्षण शुरू कर देते हैं। इंदौर और भोपाल के अस्पतालों में ऐसी ही तरकीबें अपनाकर दवाओं की आजमाईश शुरू की गई। आरोप है कि इंदौर के मेडिकल कॉलेज के चिकित्सकों ने इस मकसद पूर्ति के लिए दवा कंपनियों से दो करोड़ रूपये लिए। इस नजरिये से इस मामले की दो सप्ताह पहले सीबीआई ने भी जांच शुरू कर दी है।
यह कितनी हैरतअंगेज बात है कि जो चिकित्सक नैतिक संकल्प और संबल के साथ उपचार के पेशे मेें आते हैं, वही बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के प्रलोभन में आकर बाल-गोपालों की सेहत से खिलवाड़ करने लग जाते हैं। भारत में और दूसरे देशों में भी भारतीय लोगों को गिनीपिग की तर्ज पर इस्तेमाल करना आसान सा हो गया है। यह आसानी इसलिए भी है क्यांेकि यहां हर प्रकृति के रोगी मिल जाते हैं। वैसे भी भारत के अस्पतालों में ऑपरेशन के बहाने मानव शरीर से मुर्दे गायब कर देना आमफहम हो गया है। मनुष्यों को पशुओं तक की दवाएं खिला देने में चिकित्सक कोई संकोच नहीं बरतते।
कुछ साल पहले इसी तरह का एक प्रयोग इंग्लैण्ड में रह रहीं 21 पंजाबी भाषी महिलाओं पर किए जाने का मामला सामने आया था। इन महिलओं पर वहां के जीव वैज्ञानिकों द्वारा रेडियोधर्मी लौह लवणों का प्रयोग लगातार 20 सालों तक जारी रखा गया। बाद में बीबीसी चैनल-4 पर दिखाई गई फिल्म ‘‘डेडली एक्सपेरीमेण्ट’’ में किए गए पर्दाफाश से साफ हुआ कि ये महिलाएं 20-25 साल पहले एनीमिया (रक्त अल्पता) की शिकायत लेकर इंग्लैण्ड के एक अस्पताल में उपचार के लिए गईं थीं। यहां के चिमित्सकों ने अंदाज लगाया कि परंपरागत भारतीय भोजन के कारण इन महिलाओं के खून में लौह-तत्व की कमी है। इस निष्कर्ष पर पहुंचते ही इन चिकित्सकों ने इन महिलाओं पर गिनीपिग की तर्ज पर प्रयोग शुरू कर दिए। महिलाओं के शरीर में लौह-तत्व ढूंढ़ने के लिए उपचार के बहाने रोटियों में रेडियोधर्मी यौगिक मिलाकर उन्हें रोटियां खिलाना शुरू कर दीं। नतीजतन रेडियोधर्मी इस जहर से महिलाएं मुख्य बीमारी से ज्यादा प्रयोग के चलते प्राण गवां देने की स्थिति में आ गईं। बीबीसी ने जब रहस्य से पर्दा उठाया तब यह भी पता चला कि महिलाओं का इलाज कर रहा अस्पताल दरअसल अस्पताल न होकर एक ‘परमाणु शोध संस्थान’ है। जिसमें वहां की मेडीकल रिसर्च काउंसिल ये जानलेवा प्रयोग कर रही थी। इस प्रयोग का दुर्भाग्यपूर्ण शर्मनाक पहलू यह था कि ये परीक्षण एक भारतीय चिकित्सक की मदद से किए जा रहे थे। लिहाजा जरूरी है कि नई दवाओं, चिकित्सीय उपकरणों और उत्पादों के संबंध में एक कठोर नया कानून बनाने की जरूरत है, जिससे दवा कंपनियां और चिकित्सक लोभ के लालच में वंचितों व लाचारों की जिंदगी से खिलवाड़ करने से बाज आएं।
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प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
Thursday, February 24, 2011
प्रमोद भार्गव का आलेख : विश्वग्राम में बढ़ता नस्लभेद
पूरी दुनिया में मानवाधिकारों की वकालत करने वाले व उसकी शर्तें विकासशील देशों पर थोपने की तानाशाही बरतने वाले अमेरिका की सरजमीं पर नस्लवाद कितना वीभत्स है, यह हाल ही में अमेरिका के ट्राई वैली नामक फर्जी विश्व विद्यालय में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों के टखनों में ‘वितंतु पट्टा' (रेडियो कॉलर) पहनाकर उन पर नजर रखने के पशुवत व्यवहार के रूप में सामने आया है। इस दंभी आचरण की कार्यशैली को क्या कहा जाए, अमेरिकी मानव प्रजाति को सर्वश्रेष्ठ जताने की हठी कोशिश अथवा इस अमानवीय बद्तमीजी को नस्लभेदी मानसिकता का पर्याय माना जाए ? क्योंकि पश्चिमी देशों में अब ये घटनाएं रोजमर्रा का हिस्सा बनती जा रही हैं।
दरअसल भारतीयों की श्रमसाध्य कर्त्तव्यनिष्ठा का लोहा वैश्विक परिप्रेक्ष्य में दुनिया मान रही है। परंतु भारतीयों का नियोक्ता राष्ट्र के प्रति यही समर्पण और शालीन सज्जनता कुछ स्थानीय चरमपंथी समूहों के लिए विपरीत मनस्थितियां पैदा करती है। जिसके तईं स्थानीय नागरिक भारतीयों की अपने देशों में प्रभावशाली उपस्थिति को मौलिक अधिकारों के हनन के रूप में देखते हैं और जाने अनजाने ऐसा बर्ताव कर जाते हैं जो नस्लभेद के दायरे में आता है। अमेरिका और आस्ट्रेलिया में जहां ऐसी घटनाओं का अंजाम छात्रों के साथ हिंसक व्यवहार के रूप में सामने आ रहा है, वहीं ब्रिटेन में सिख समुदाय के लिए पगड़ी और कटार धारण नस्लभेदी संकट का कारक बन रहे हैं। विश्वग्राम के बहाने साम्राज्यवादी अवधारणा के ये ऐसे सह-उत्पाद हैं, जो यह तय करते हैं कि धर्मनिरपेक्षता राष्ट्राध्यक्षों का मुखौटा है। उसके भीतर जातीय और नस्लीय संस्कार तो अंगड़ाई लेते ही रहते हैं।
आज कमोबेश पूरी दुनिया में वैश्विक व्यापार की विस्तारवादी सोच की आड़ में राजनैतिक चेतना, समावेशी उपाय करने में पिछड़ती दिखाई दे रही है। परिणामस्वरूप सामाजिक सरोकार और प्रगतिशील चेतनाएं हाशिये पर धकेल दी जा रही हैं। उपेक्षापूर्ण कार्यशैली की यही परिणति प्रतिरोधी शंखनाद का ऐसा चेहरा है जो मनुष्यताद्रोही है। बाजारवादी संस्कृति की यह क्रूरता और कुरूपता सांस्कृतिक बहुलतावाद को भी आसन्न खतरा है। योरोपीय मूल के लोगों में ही नहीं एशियाई और दक्षिण व मध्य एशियाई मूल के लोगों में भी प्रतिरोध की यह धारणा बलवती हो रही है। अरब देशों में हिंसक प्रदर्शन और सूडान का विभाजन इसके ताजा उदाहरण हैं।
अमेरिका में भारतीय छात्रों के साथ घृणा के व्यवहार की शुरूआत एक अभियान के तहत आंध्रप्रदेश के छात्र श्रीनिवास चिरकुरी की हत्या के साथ करीब डेढ़ दशक पहले हुई थी। दो अज्ञात अमेरिकी युवकों ने उसे जिंदा जलाकर मार डाला था। यह वीभत्स घटना उस समय घटी थी जब श्रीनिवास अमेरिका के नेबादा राज्य विश्वविद्यालय परिसर की प्रयोगशाला में प्रयोगों में तल्लीन था। हत्यारे हमलावर युवकों ने उसके शरीर पर ज्वलनशील पदार्थ डालते हुए कहा भी था कि हम विश्वविद्यालय में किसी विदेशी छात्र को नही रहने देना चाहते। अमेरिका में हिंसक हो रही युवा पीढ़ी की यह कुंठा थी, जो आवेग में अनायास ही हत्यारे युवकों की जबान पर आ गई थी।
मंदी की जबरदस्त मार झेल रहे अमेरिका के मौजूदा हालातों में बेरोजगारी की दर 9 से 15 फीसदी के बीच डोल रही है। ऐसे में रोजगार की हकमारी कर रहे विदेशी युवकों के प्रति अमेरिकी युवकों की दमित कुंठा या अधिकारियों का जंगली व्यवहार क्या कहर ढाएंगे यह तो आने वाला समय ही तय करेगा। लेकिन ये घटनाएं ऐसी चेतावनियां है जो नस्लभेद और जन्मजात जातीय संस्कारों के वजूद के प्रति सचेत करती हैं। ये घटनाएं इस बात का भी संकेत हैं कि यदि पूंजीवादी सरकारों के हित साधन के लिए बहुसंख्यक समाज को वंचित बनाए जाने की नीतिबद्ध योजनाएं इसी तरह क्रियान्वित होती रहीं तो कई देशों में वंचितों की बढ़ती दर जातीय और सांप्रदायिक वैमनस्यता के बूते गृहयुद्ध के हालात पैदा कर देगी। भारत में बढ़ता व फैलता नक्सलवाद ऐसी ही एकपक्षीय सरोकारों से जुड़ी नीतियों की देन है। इन नीतियों के निहितार्थ दुनिया की आबादी को भोगवादियों की संख्या में समेट देने में भी निहित हैं।
अमेरिका में रंगभेद, जातीय भेद व वैमनस्य का सिलसिला नया नहीं है। इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। इन जड़ों की मजबूती के लिए इन्हें जिस रक्त से सींचा गया था वह भी अश्वेतों का था। हाल ही में अमेरिकी देशों में कोलंबस के मूल्यांकन को लेकर दो दृष्टिकोण सामने आए हैं। एक दृष्टिकोण उन लोगों का है जो अमेरिकी मूल के हैं और जिनका विस्तार व वजूद उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका के अनेक देशों में है। दुसरा दृष्टिकोण या कोलंबस के प्रति धारण उन लोगों की है जो दावा करते हैं कि अमेरिका का अस्तित्व ही हम लोगों ने खड़ा किया है। इनका दावा है कि कोलंबस अमेरिका में इन लोगों के लिए मौत का कहर लेकर आया। क्योंकि कोलंबस के आने तक अमेरिका में इन लोगों की आबादी बीस करोड़ के करीब थी, जो अब घटकर दस करोड़ से भी कम रह गई है। इतने बड़े नरसंहार के बावजूद अमेरिका में मौजूदा इस हिंसक प्रवृत्ति से अमेरिका अभी भी मुक्त नहीं हो पाया है, यह भारतीय छात्रों के टखनों में वितंतु पट्टा बांधने की घटना से साबित होता है।
फौरी तौर से इस घटना को न तो राजनीतिक दृष्टिकोण से देखना चाहिए और न ही राजनीतिक रंग देने की कोशिश करनी चाहिए। वैसे भी ऊपरी तौर से यह घटना प्रशासनिक अव्यवहार से जुड़ी है। हमारे विदेश मंत्री एसएम कृष्णा ने इस घटना को अमानवीय बताकर इतिश्री कर ली है। जबकि इस पर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही तरफ से मजबूत प्रतिरोध जाहिर होना चाहिए था। यह इसलिए जरूरी था क्योंकि विश्वविद्यालय के गैरकानूनी होने की तसदीक केवल अमेरिका के प्रशासनिक अधिकार क्षेत्र में था। छात्रों के अपराधी होने का तो कोई आधार ही नहीं बनता। इसके बावजूद उनसे मनुष्य विरोधी आचरण किया गया।
राजनेताओं के कमोबेश खामोश रवैये से साबित होता है कि हमारे नेता कितनी सतही, विदेशी दबाव से प्रभावित और पक्षपातपूर्ण राजनीति करते हैं। दरअसल अमेरिका ने भारत और अन्य तीसरी दुनिया के देशों को जानवरों की तरह हांक लगाकर दबाव का जो वातावरण बनाया है उससे अमेरिकी जनमानस में इन देशों के प्रति दोयम दर्जे का रूख अपनाने की मनोवृत्ति पनपी है। अमेरिकियों में पैदा हुए इस मनोविज्ञान के चलते भारतीय मूल के छात्रों व अन्य अप्रवासियों के खिलाफ वैमनस्य का माहौल तैयार हुआ है, जिसकी परिणति अब क्रूरता के रूप में घटित हो रही है।
इस घटना के लिए विदेशी शिक्षा हासिल करने की वह भारतीय मानसिकता भी जिम्मेबार है, जो जोखिम उठाने से भी नहीं कतराती। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि हमारे देश से जो प्रतिभावान छात्र पलायन कर योरोपीय देशों में पहुंचते हैं, वे जिस किसी भी बौद्धिकता से ताल्लुक रखने वाले क्षेत्र में हों अपने विषयी कार्यक्षेत्र में इतने दक्ष और कर्त्तव्य के प्रति इतने सजग रहते हैं कि अपनी सफलताओं और उपलब्धियों से वे खुद तो लाभान्वित होते ही हैं, नियोक्ता राष्ट्रों को भी लाभ पहुंचाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते। अलबत्ता इतना जरूर है कि इन भारतीयों ने अपनी कर्मठता व योग्यता से जो प्रतिष्ठा व सम्मान अमेरिका, ब्रिटेन अथवा आस्ट्रेलिया की धरती पर अर्जित किया, वही अब इनके लिए अभिशाप साबित हो रहा है। क्योंकि इन समर्पित भारतीय मूल के बौद्धिकों ने अमेरिकी व ब्रिटेन मूल के बौद्धिकों को कहीं बहुत पीछे खदेड़ दिया हैं। बौद्धिक वजूद की भारतीय और योरोपीय मूल के छात्रों के बीच प्रचलित इस होड़ में जब योरोपीय छात्र पिछड़ रहे हैं तो उनकी मनोवृत्ति में बदलाव आ रहा है। अब ये छात्र हमारी बिल्ली हमसे ही म्याऊं की तर्ज पर भारतीय छात्रों को आतंकित कर रहे हैं।
जानकारी तो यहां तक मिल रही है कि अमेरिका, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया में नस्लीय आतंक और हिंसा में लगातार इजाफा हो रहा है। फलस्वरूप प्रतिक्रियावादी संगठन भी इन देशों की धरती पर खड़े हो रहे हैं। ‘क्लू क्लाक्स क्लोने' और ‘स्किन हैड' जैसे हथियारों से लैस संगठन वजूद में आ गए हैं। जो नस्लभेद से जुड़ी हिंसक वारदातों को अंजाम देने में लगे हैं। अमेरिका शासन तंत्र को इन कट्टर जातिवादी संगठनों की जानकारी है। भारतीय मूल के लोग भी प्रशासन को ज्ञापन देकर ध्यान आकर्षित कर चुके हैं।
इस समय तीन चीजें कथित विश्वग्राम में तब्दील कर दी गई तीसरी दुनिया के देशों को झकझोर रही है। एक एडम स्मिथ द्वारा रचित अमेरिकी हित साधक पूंजीवादी अर्थशास्त्र, दूसरा नवऔद्योगिक व प्रौद्योगिक साम्राज्यवाद और तीसरा विदेशी अंग्रेजी शिक्षा का सम्मोहन। इन तीन परिवर्तनकारी कारकों ने इराक, वियतनाम, कोरिया और अफगानिस्तान को धूल-ध्वस्त किया। पाकिस्तान और मिश्र इन कारकों की आंधी में झुलस रहे हैं। भारत का परंपरागत समाज इसी प्रगति और विकास के बहाने अपनी अकूत प्राकृतिक संपदा को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दोहन की खुली छूट देकर अपने पैरों में खुद ही कुल्हाड़ी मार रहा है। नतीजतन हम अपने प्राकृतिक संसाधनों को वैश्विक आर्थिकी के मायावी छल के चलते 10-12 प्रतिशत की तेज गति से खोते जा रहे हैं। दुनिया में आई आर्थिक मंदी ने वैश्वीकरण के जन विरोधी चेहरे को बेनकाब भी कर दिया है। इसके बावजूद हम हैं कि अमेरिकी पूंजीवादी अर्थशास्त्र और विदेशी शिक्षा को राम की खड़ाऊं मानकर चल रहे हैं। इससे मुंह मोड़ने के सार्थक नीतिगत उपाय नहीं किए गए तो पश्चाताप के आंसू निकालना भी मुश्किल होगा।
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प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
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Wednesday, February 23, 2011
प्रमोद भार्गव का आलेख : अंग्रेजी वर्चस्व के चलते संकट में आईं भाषाएं
यह एक दुखद समाचार है कि अंग्रेजी वर्चस्व के चलते भारत समेत दुनिया की अनेक मातृभाषाएं अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। भारत की स्थिति बेहद चिंताजनक है क्योंकि यहां कि 196 भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं। भारत के बाद अमेरिका की स्थिति चिंताजनक है, जहां की 192 भाषाएं दम तोड़ रही हैं। दुनियां में कुल 6900 भाषाएं बोली जाती हैं, जिनमें से 2500 भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर भाषाओं की विश्व इकाई द्वारा दी गई जानकारी में बताया गया है कि बेलगाम अंग्रेजी इसी तरह से पैर पसारती रही तो एक दशक के भीतर करीब ढाई हजार भाषाएं पूरी तरह समाप्त हो जाएंगी। भारत और अमेरिका के बाद इंडोनेशिया की 147 भाषाओं को जानने वाले खत्म हो जाएंगे। दुनिया भर में 199 भाषाएं ऐसी हैं जिनके बोलने वालों की संख्या एक दर्जन लोगों से भी कम है। ऐसी भाषाओं में कैरेम भी एक ऐसी भाषा है जिसे उक्रेन में मात्र छह लोग बोलते हैं। इसी तरह ओकलाहामा में विचिता भी एक ऐसी भाषा है जिसे देश में मात्र दस लोग बोल पाते हैं। इंडोनेशिया की लेंगिलू बोलने वाले केवल चार लोग बचे हैं। 178 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने वाले लोगों की संख्या 150 लोगों से भी कम है। भाषाओं को संरक्षण देने की दृष्टि से ही 190 के दशक में 21 फरवरी को हर साल अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने की घोषणा की गई थी, लेकिन दो दशक बीत जाने के भाषाओं के बचाने के कोई सार्थक उपाय सामने नहीं आ पाए, जबकि अंग्रेजी का मुख विश्वग्राम के बहाने सुरसामुख की तरह फैलता ही जा रहा है।
कोई भी भाषा जब मातृभाषा नहीं रह जाती है तो उसके प्रयोग की अनिवार्यता में कमी और उससे मिलने वाले रोजगारमूलक कार्यों में भी कमी आने लगती है। जिस अत्याधुनिक पाश्चात्य सभ्यता पर गौरवान्वित होते हुए हम व्यावसायिक शिक्षा और प्रौद्योगिक विकास के बहाने अंग्रेजी का प्रभाव बढ़ाते जा रहे हैं, दरअसल यह छद्म भाषाई अहंकार है। क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियां हमारी ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहरें हैं। इन्हें मुख्यधारा में लाने के बहाने, इन्हें हम तिल-तिल मारने का काम कर रहे हैं। कोई भी भाषा कितने ही छोटे क्षेत्र में, भले कम से कम लोगों द्वारा बोली जाने के बावजूद उसमें पारंपरिक ज्ञान के असीम खजाने की उम्मीद रहती है। ऐसी भाषाओं का उपयोग जब मातृभाषा के रुप में नहीं रह जाता है तो वे विलुप्त होने लगती हैं। सन् 2100 तक धरती पर बोली जाने वाली ऐसी सात हजार से भी ज्यादा भाषाएं हैं जो विलुप्त हो सकती हैं।
जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने अपने शोध से भारत के भाषा और संस्कृति संबंधी तथ्यों से जिस तरह समाज को परिचित कराया था, उसी तर्ज पर अब नए सिरे से गंभीर प्रयास किए जाने की जरुरत है, क्योंकि हर पखवाड़े भारत समेत दुनिया में एक भाषा मर रही है। इस दायरे में आने वाली खासतौर से आदिवासी व अन्य जनजातीय भाषाएं हैं, जो लगातार उपेक्षा का शिकार होने के कारण विलुप्त हो रही हैं। ये भाषाएं बहुत उन्नत हैं और ये पारंपरिक ज्ञान की कोष हैं। भारत में ऐसे हालात सामने भी आने लगे हैं कि किसी एक इंसान की मौत के साथ उसकी भाषा का भी अंतिम संस्कार हो जाए। स्वाधीनता दिवस 26 जनवरी 2010 के दिन अंडमान द्वीप समूह की 85 वर्षीया बोआ के निधन के साथ एक ग्रेट अंडमानी भाषा ‘बो' भी हमेशा के लिए विलुप्त हो गई। इस भाषा को जानने, बोलने और लिखने वाली वे अंतिम इंसान थीं। इसके पूर्व नवंबर 2009 में एक और महिला बोरो की मौत के साथ ‘खोरा' भाषा का अस्तित्व समाप्त हो गया। किसी भी भाषा की मौत सिर्फ एक भाषा की ही मौत नहीं होती, बल्कि उसके साथ ही उस भाषा का ज्ञान भण्डार, इतिहास,संस्कृति,उस क्षेत्र का भूगोल एवं उससे जुड़े तमाम तथ्य और मनुष्य भी इतिहास का हिस्सा बन जाते हैं। इन भाषाओं और इन लोगों का वजूद खत्म होने का प्रमुख कारण इन्हें जबरन मुख्यधारा से जोड़ने का छलावा है। ऐसे हालातों के चलते ही अनेक आदिम भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं।
अंडमान-निकोबार द्वीप की भाषाओं पर अनुसंधान करने वाली जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की प्राध्यापक अन्विता अब्बी का मानना है कि अंडमान के आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने के जो प्रयास किए गए हैं उनके दुष्प्रभाव से अंडमान द्वीप क्षेत्र में 10 भाषाएं प्रचलन में थीं, लेकिन धीरे-धीरे ये सिमट कर ‘ग्रेट अंडमानी भाषा' बन गईं। यह चार भाषाओं के समूह के समन्वय से बनीं।
भारत सरकार ने उन भाषाओं के आंकड़ों का संग्रह किया है, जिन्हें 10 हजार से अधिक संख्या में लोग बोलते हैं। 2001 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार ऐसी 122 भाषाएं और 234 मातृभाषाएं हैं। भाषा-गणना की ऐसी बाध्यकारी शर्त के चलते जिन भाषा व बोलियों को बोलने वाले लोगों की संख्या 10 हजार से कम है उन्हें गिनती में शामिल ही नहीं किया गया।
यहां चिंता का विषय यह भी है कि ऐसे क्या कारण और परिस्थितियां रहीं की ‘बो' और 'खोरा' भाषाओं की जानकार दो महिलाएं ही बची रह पाईं। ये अपनी पीढ़ियों को उत्तराधिकार में अपनी मातृभाषाएं क्यों नहीं दे पाईं। दरअसल इन प्रजातियों की यही दो महिलाएं अंतिम वारिस थीं। अंग्रेजों ने जब भारत में फिरंगी हुकूमत कायम की तो उसका विस्तार अंडमान-निकोबार द्वीप समूहों तक भी किया। अंग्रेजों की दखल और आधुनिक विकास की अवधारणा के चलते इन प्रजातियों को भी जबरन मुख्यधारा में लाए जाने के प्रयास का सिलसिला शुरु किया गया। इस समय तक इन समुद्री द्वीपों में करीब 10 जनजातियों के पांच हजार से भी ज्यादा लोग प्रकृति की गोद में नैसर्गिक जीवन व्यतीत कर रहे थे। बाहरी लोगों का जब क्षेत्र में आने का सिलसिला निरंतर रहा तो ये आदिवासी विभिन्न जानलेवा बीमारियों की गिरफ्त में आने लगे। नतीजतन गिनती के केवल 52 लोग जीवित बच पाए। ये लोग ‘जेरु' तथा अन्य भाषाएं बोलते थे। बोआ ऐसी स्त्री थी जो अपनी मातृभाषा ‘बो' के साथ मामूली अंडमानी हिन्दी भी बोल लेती थी। लेकिन अपनी भाषा बोल लेने वाला कोई संगी-साथी न होने के कारण ताजिंदगी उसने ‘गूंगी' बने रहने का अभिशाप झेला। भाषा व मानव विज्ञानी ऐसा मानते हैं कि ये लोग 65 हजार साल पहले सुदूर अफ्रीका से चलकर अंडमान में बसे थे। ईसाई मिशनरियों द्वारा इन्हें जबरन ईसाई बनाए जाने की कोशिशों और अंग्रेजी सीख लेने के दबाव भी इनकी घटती आबादी के कारण बने।
‘नेशनल ज्योग्राफिक सोसायटी एंड लिविंग टंग्स इंस्टीट्यूट फॉर एंडेंजर्ड लैंग्वेजेज' के अनुसार हरेक पखवाड़े एक भाषा की मौत हो रही है। सन् 2100 तक भू-मण्डल में बोली जाने वाली सात हजार से भी अधिक भाषाओं का लोप हो सकता है। इनमें से पूरी दुनिया में सात्ताईस सौ भाषाएं संकटग्रस्त हैं। इन भाषाओं में असम की 17 भाषाएं शामिल हैं। यूनेस्कों द्वारा जारी एक जानकारी के मुताबिक असम की देवरी,मिसिंग,कछारी,बेइटे,तिवा और कोच राजवंशी सबसे संकटग्रस्त भाषाएं हैं। इन भाषा-बोलियों का प्रचलन लगातार कम हो रहा है। नई पीढ़ी के सरोकार असमिया, हिन्दी और अंग्रेजी तक सिमट गए हैं। इसके बावजूद 28 हजार लोग देवरी भाषी, मिसिंगभाषी साढ़े पांच लाख और बेइटे भाषी करीब 19 हजार लोग अभी भी हैं। इनके अलावा असम की बोडो, कार्बो, डिमासा, विष्णुप्रिया, मणिपुरी और काकबरक भाषाओं के जानकार भी लगातार सिमटते जा रहे हैं। घरों में ,बाजार में व रोजगार में इन भाषाओं का प्रचलन कम होते जाने के कारण नई पीढ़ी इन भाषाओं को सीख-पढ़ नहीं रही है। दरअसल जिस भाषा का प्रयोग लोग मातृभाषा के रुप में करना बंद कर देते हैं, वह भाषा धीरे-धीरे विलुप्ति के निकट आने लगती है।
भारत की तमाम स्थानीय भाषाएं व बोलियां अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव के कारण संकटग्रस्त हैं। व्यावसायिक, प्रशासनिक, चिकित्सा, अभियांत्रिकी व प्रौद्योगिकी की आधिकारिक भाषा बन जाने के कारण अंग्रेजी रोजगारमूलक शिक्षा का प्रमुख आधार बना दी गई है। इन कारणों से उत्तरोत्तर नई पीढ़ी मातृभाषा के मोह से मुक्त होकर अंग्रेजी अपनाने को विवश है। प्रतिस्पर्धा के दौर में मातृभाषा को लेकर युवाओं में हीन भावना भी पनप रही हैं। इसलिए जब तक भाषा संबंधी नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन नहीं होता तब तक भाषाओं की विलुप्ति पर अंकुश लगाना मुश्किल है। भाषाओं को बचाने के लिए समय की मांग है कि क्षेत्र विशेषों में स्थानीय भाषा के जानकारों को ही निगमों, निकायों, पंचायतों, बैंकों और अन्य सरकारी दफ्तरों में रोजगार दिए जाएं। इससे अंग्रेजी के फैलते वर्चस्व को चुनौती मिलेगी और ये लोग अपनी भाषाओं व बोलियों का संरक्षण तो करेंगे ही उन्हें रोजगार का आधार बनाकर गरिमा भी प्रदान करेंगे। ऐसी सकारात्मक नीतियों से ही युवा पीढ़ी मातृभाषा के प्रति अनायास पनपने वाली हीन भावना से भी मुक्त होगी। अपनी सांस्कृतिक धरोहरों और स्थानीय ज्ञान-परंपराओं को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए जरुरी है हम भाषाओं और उनके जानकारों की वंश परंपरा को भी अक्षुण्ण बनाए रखने की चिंता करें।
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pramodsvp997@rediffmail.com
pramod.bhargava15@gmail.com
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है ।
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